दारु हरिद्रा के आयुर्वेदोक्त गुण और् कर्म
यह लघु, रुक्ष, तिक्त, कषाय , कटु और वीर्य मे उष्ण होता है !
इसका फ़ल कुछ मधुर रस युक्त होता है !
दार्वी, कंटकटॆरी, पंचपंचा, दारुहल्दी, आदि नामो से इसको जाना जाता है ।
नेत्राभिष्यंद मे दारुहरिद्रा बहुत ही उपयोगी होती है ।
इसके फ़लों को युनानी मे झरिष्क कहते हैं । यह शीतल तथा आमाशय की गरमी को शांत करनेवाले माने जाते हैं ।
उत्तम मात्रा मे दारुहरिद्रा पाली के ज्वर को रोकती है।
दारुहरिद्राके मूल और कांड के नीचे के भाग की पीत रंग की लकडी को उपयोग् मे लेना चहिये ।
दारुहरिद्रा विशेष रुप से स्त्रियों के रोग जैसे की रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर , गर्भाशय की निर्बलता, ट्युबकी सुजन () , एन्डोमेट्रोईसिस्, डी यु बी, गर्भाशयग्र्ंथि, हैम्रोजिक सिस्ट, आदि मे बहुत ही उपयोगी है ।
इसके घन को रसांजन कहते है जिसका उपयोग मुख्य रुप से अर्श यानि बवासीर रोग मे किया जाता है ।
इसके अतिरिक्त यह लीवर के लिये भी बहुत ही अच्छी औषधी है । यह पोर्टलवेन के हाईपरटेंशन को दूर करके शरीर मे घुमने वाली अपान वायु को नियमित करता है ।स्थानिक प्रयोग मे इसका प्रयोग रक्त्जार्श मे प्रक्षालन मे किया जाता है जिसके कारण अर्श के मस्से सिकुड कर समाप्त हो जाते हैं ।
पैतिक योनि व्यापदों मे दारुहरिद्रा और लोध्र का उपयोग किया जा सकता है ।
जीर्ण ज्वर मे रसांजन को उपयोग ज्वरनाश के लिये एकलद्र्व्य के रुपमे बहुत से वैद्य् करते हैं ।
2 comments:
बदलते माहौल में कई बार छोटी-छोटी बातें भी बड़ी प्रेरक सी बन जाती हैं। मेरा ब्लॉग कुछ यादों को सहेजने का ही जतन है। अन्य चीजों को भी साझा करता हूं। समय मिलने पर नजर डालिएगा
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यह नेत्र रोग में भी काम करता हैं??
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