वातहर द्रव्यों मे यह विशेष स्थान रखती है। इसका बहुवर्षायु कठिन क्षुप होता है । इसके पत्र त्रिपत्रक या पंच पत्रक , दन्तुर भालाकार होते हैं । पुष्प मंजरियों मे आते है और नीलाभ रंग के होते हैं ।
यह लगभग हर जगह मिल जाती है।
आचार्यों ने इसको विषघ्न, क्रिमिघ्न, और सुरसादि गण मे रखा है , आधुनिक द्र्व्यगुण मे इसको वेदना स्थापन
गण मे रखा है ।
आयुर्वेदिक गुण कर्म --
लघु, रुक्ष, विपाक मे कटु, रस मे कटु तिक्त, वीर्य मे उष्ण , कफ़वात शामक
मै अपनी आयुर्वेदशाला मे इसको निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हुँ --
- शिरोविरेचन के लिये इसके स्वरस का प्रयोग विशेष कर पीनस रोग मे
- बीजों का प्रयोग कफ़ के अवरोध को दूर करने के लिये विशेष कर फ़ेलोपियन ट्युब की रुकावट के लिये
- विभिन्न दुष्ट व्रणों के रोपण के लिये इससे सिद्ध तैल बहुत ही कारगर है
- वातरोगों यथा आमवात संधिवात रोग मे इसके क्वाथ से स्थानिक वाष्प स्वेदन और आभ्यांतर प्रयोग
प्रयोज्यांग-- पत्र , मूल, स्वरस । मात्रा मूलत्वक चुर्ण- ३ ग्रा, बीज चुर्ण - ३ ग्रा .
चित्र प्राप्ति स्थान -- करनाल ( हरियाणा )
आप सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएँ
No comments:
Post a Comment