उत्तर भारत मे लगभग हर जगह बागों मे लगाया हुआ पाया जाता है । इसका हर भाग विषैला होता है अत: इसे किसी वैद्य की देखरेख मे ही प्रयोग करें ।
आधुनिक द्रव्यगुण मे इस को हृदय वर्ग मे रखा गया है ।
इसकी मुख्य दो प्रजातियां होती है श्वेत और रक्त यहाँ पर रक्त करवीर का वर्णन किया जा रहा है +
लघु, रुक्ष, तीक्ष्ण। कटु, तिक्त। उष्ण । उपविष
त्वचा रोग नाशक, व्रण शोधन, कुष्ठ रोग नाशक, कफ़वात शामक, शोथहर, रक्तशोधक, हृदय रोगनाशक (दुर्बलता जन्य)
- विभिन्न त्वचा रोगों मे इसके पत्रों से सिद्ध तैल का प्रयोग किया जाता है , इससे सिद्ध तैल व्रण शोधन और व्रण रोपण भी होता है ।
- हृदय रोगो मे जब कोई और उपाय नही होता है तो इसका प्रयोग किया जाता है , इसके मात्रा १२५ मि. ग्रा से ज्यादा नही होनी चाहिये
वैद्य की देखरेख मे ले ।
चित्रप्राप्ति स्थान== करनाल हरियाणा
मात्रा-- मूल चुर्ण-- १२५ मि. ग्रा
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