इसका वर्षायु क्षुप होता है जो कि कंटीले पत्रो युक्त एवं चमकीले हरे रंग का होता है , सर्दियों मे यह उत्पन्न होता है और बसंत मे इसके चमीकले फ़ूल आतेहैं । पत्तों को तोड़ने पर पीले रंग का दुध जैसा पदार्थ निकलता है , इसी कारण इसको स्वर्णक्षीरी भी कहते हैं ।
आयुर्वेदिक गुण--
गुण-- लघु , रुक्ष
रस-- तिक्त
विपाक-- कटु
वीर्य-- शीत
कफ़पित्तशामक, विरेचक, व्रणरोपण, शोधन, कृमिहर,
मै अपनी आयुर्वेदशाला मे इस द्रव्य को निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हूँ--
- व्रण( Skin Ulcer) शोधक कल्क को व्रण पर लगाने से दूषित व्रण भी ठीक हो जाता है
- विभिन्न त्वचा रोगों(Wet eczema) मे इसको अमलतास की लकड़ी, मैनशल, गंधक, बाकुची बीज, के साथ चुर्ण करके शतौध घृत मे मिलाकर लेप के रुप मे प्रयोग करने पर बहुत ही लाभजनक होता है ।
- मूल स्वरस ( ५-१० मिलि.) को हर प्रकार के चर्म रोगों मे प्रयोग किया जाता है ।
2 comments:
स्वर्णक्षीरी एक महत्वपूर्ण आेषधि है। इसके बारे मे आया है कि पैंसलीन का जहां प्रयोग किया जाता है,वहां इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। इसका कोई साइड इफैक्ट भी नही है। हापुड उत्तर प्रदेश की एक फार्मेसी तो इसके इंजैक्शन बनाती थी:
जानकारी देनेके लिये धन्यवाद अशोक मधुप जी ,
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