आस्था आयुर्वेद , असंध (हरियाणा)| पुराने रोग एवं बन्ध्यत्व निवारण केन्द्र |
Tuesday, December 28, 2010
Cannabis sativa, indian mariijuna, भंगा, भांग
Saturday, December 18, 2010
Centella asiatica,ब्राह्मी, मण्डूकपर्णी
- विभिन्न प्रकार के त्वचा विकारो और बालो के विकारो मे इसका स्थानिक प्रयोग
- बच्चो के शब्द उच्चारण के ठीक से ना करने पर इसके पत्तों के चबाने के लिये दिया जाता है ।
- स्मरण शक्ति को बड़ाने के लिये इसके स्वरस या चुर्ण का प्रयोग ।
- हृदय की दुर्बलता मे शंखपुष्पी के साथ इसका प्रयोग लाभदायक है ।
- शोथ मे इसका प्रयोग मकोय के स्वरस के साथ लाभदायक पाया गया है ।
Monday, December 6, 2010
Vernonia cineria , Purple fleabane,सहदेवी
Monday, November 29, 2010
बिल्व, बेल, Aegle marmelos
लघु,रुक्ष,कषाय, तिक्त विपाक मे कटु और वीर्य मे उष्ण होने के कारण यह कफ़ वात शामक है । आधुनिक द्र्व्यगुण मे इसको ग्राही वर्ग मे रखा गया है।
उत्तरभारत मे हर जगह मिल जाता है । इसका बहुवर्षायु वृक्ष होता है , पत्र त्रिपत्रक होते है , फ़ल गोल कठोर और बड़े आकार का होता है ।
अधिक जानकारी के लिये कृपया चित्र देंखे ।
विल्व का फ़ल अपक्व ही श्रेष्ठ होता है , पका हुआ फ़ल वातकारक और अग्निमंद करने वाला होता है ।
बिल्व का मूल, त्वचा, पत्र तथा फ़ल का गुदा औषधार्थ व्यवहृत होता है ।
दशमूलादि कषायों मे मूल या त्वचा का प्रयोग करना चहिए । इसका मूल मादक तथा ग्यान तंतुओ पर शामक असर करने वाला माना जाता है। अत: यह निद्रानाश आदि मे प्रशस्त है ।
कच्चा बिल्व्फ़ल मज्जा और सोंफ़ तथा वचा के साथ आंव मे विशेष लाभ करता है।
ग्रहणी और आंव की यह विशेष औषधि है ।
Thursday, October 21, 2010
Phyllanthus niruri,भूमिआँवला
यह एक छोटा क्षुप होता है जो कि प्राय वर्षाऋतु मे अधिक मिलता है प्राय उत्तर भारत मे लगभग हर मिल जाता है ।
पत्ते हर रंग के डैंचे के पौधे के तरह होते है , यदि हम पत्तों को उलट कर देखते है तो छोटे छोटे आमले की तरह के बीज पत्ते के पीछे लगे रहते है इसीलिये इसे भुमि आमला के नाम से जाना जाता है ।
आधुनिक द्रव्यगुण मे इसको मुत्रल वर्ग मे रखा गया है लेकिन इसका मुख्य प्रयोग लीवर रोगों मे सफ़लता पूर्वक किया जा रहा है ।
यह रुक्ष, लघु, तिक्त, कषाय , मधुर , और वीर्य मे शीत स्वभाव का होता है
यह वातकृत और कफ़पित्तशमन होता है ।
विभिन्न प्रकार के दुष्ट व्रणो मे उपद्रवॊं को रोकने के लिये इसको धारण किया जाता है ।
लीवर के रोगो मे यह बहुत ही उपयोगी होता है ।
यह मुत्रविरेचक भी होता है ।
मैने इसका स्वतंत्र रुप से अपनी आयुर्वेदशाला मे प्रयोग नही किया है ।
चित्रप्राप्ति स्थान-- जिला करनाल हरियाणा
प्रयोज्यांग-- पांचाग, मात्रा-- स्वरस १० से २० मि. लि. चुर्ण- १ से ३ ग्रा. ।
Sunday, September 12, 2010
Asparagus racemosus, शतावरी
रसायन, बलकारक, रस मे स्वादु, गुरु, शीतल, स्तन्य, नेत्रों के लिये हितकर, वायु, पित्त, रक्तपित्त, अग्निमांद्य, तथा शोथ को हरने वाली होती है ।
यह मुख्यरुप से वातपित्त शामक होती है है और मुख्यरुप से इसका प्रयोग शुक्रवृद्धि और स्तन्य वृद्धि के लिये किया जाता है ।
यह कंटकयुक्त आरोहणी लता होती है जो कि समस्त भारत मे तथा हिमालय मे ४ हजार ईट की ऊँचाई तक पाई जाती है। कृपया चित्र देखें।
चित्रप्राप्ति स्थान-- करनाल ( हरियाणा)
मै अपनी आयुर्वेदशाला मे इसकॊ निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हूँ-
- अम्लपित्त रोग मे शातावरी मण्डुर का प्रयोग ।
- शुक्रवृद्धि और स्तन्यवृद्धि के लिये शतावरी कल्प का प्रयोग ।
- गर्भीणि मे शतावरी घृत का प्रयोग ।
- रक्तप्रदर की भयंकर अवस्था मे इसका प्रयोग बहुत ही लाभकर होता है।
Monday, August 23, 2010
Crataeva nurvala, वरूण, बरणा
जनवरी से अप्रैल तक यह वृक्ष निश्पत्र रहता है । इसके फ़ल निम्बु के आकर के होते हैं।
यह अत्यधिक उष्ण होता है और प्रभाव से अश्मरी भेदन का काम करता है । इसके अतिरिक्त इसका प्रयोग अंतरविदर्धि और ग्रंथि मे भी किया जाता है ।
यह लघु रुक्ष, तिक्त कषाय कटु होने के कारण शरीर मे स्रोतशोधन का काम करता है ।
मै इसको अपनी आयुर्वेदशाला मे अश्मरी भेदन और शोथ के लिये करता हँ ।
वातरक्त, गण्डमाला, बस्तिशुल, मुत्रमार्ग संक्रमण अश्मरी, की यह विशिष्टऔषधि है ।
चित्रप्राप्ति स्थान == राणा एग्रिकल्चर फ़ार्म जिला करनाल हरियाणा
प्रयोज्यांग -- त्वक
Sunday, August 22, 2010
Capparis decidua, करीर, कैर, करीं
यह प्राय शुष्क प्रदेश मे पाया जाता है , हरियाणा, राजस्थान आदि मे सूखी जगह पर पाया जाता है। यह पत्रविहीन एवं कंटीला क्षुप होता है और झाड़ीनुमा होता है।
ज्यादा डीटेल आप फ़ोटो से प्राप्त कर सकते हैं ।
यह कफ़वात शामक होता है और मुख्य रुप से जन्तुघ्न, व्रणशोधन, वेदनास्थापन और शुष्कार्शनाशक होता है ।
इसकी कोमल कोपलो को यदि मसल कर शरीर के किसी हिस्से पर लगा दे तो वहां पर विदाह उत्त्पन्न कर करके फ़फ़ोले पैदा कर देता है ।
मुख्य रुप से इसका प्रयोग सुखी बबासीर मे किया जाता है , इसका आचार वातशामक और वातानुलोमक होता है ।
कोमल कोंपलो को मसल कर कल्क बांधने से गृध्रसी रोग मे लाभकरी है।
कफ़वात शामक , लघु रुक्ष, कटु तिक्त और उष्ण होने के कारण यह फ़फ़ज और वात्ज हृदय रोग मे भी लाभकरी है ।
चित्र प्राप्ति स्थान -- जिला करनाल हरियाणा
Saturday, August 21, 2010
Marsilea minuta, सुनिष्णक, चोपतिया
यह त्रिदोषशामक, लघु, स्निग्ध, कषाय, मधुर शीत और विपाक मे कटु होता है ।
यह मुख्य रुप से रक्तजार्श(Bleeding Piles) मे बहुत ही उपयोगी है ।
वैसे मैने इसको अपनी आयुर्वेदशाला मे उपयोग नही किया है , लेकिन इसका प्रयोग शाक के रुप मे किया जा सकता है , निद्राजनन, वेदनास्थापन, तथा मृदुविरेचक होने के कारण खुनी बवासीर मे उपयोगी है ।
मुख्यरुप से इसके शाक का उपयोग किया जाता है , स्वरस की मात्रा - १० से २० मि.लि. होती है ,
स्वरस को हमेशा मृतपात्र मे कुछ गरम करके और उसमे कुछ काली मिरच का चुर्ण डालकर प्रयोग किया जाना चाहिये ।
प्रसिद्ध योग-- सुनिष्णकचांगेरी घृत
चित्र प्राप्तिस्थान-- जिला करनाल हरियाणा
Saturday, August 14, 2010
eclipta alba, भृंगराज
पत्ते लंबे और नोकिले होते हैं व अभिअमुख होते हैं । तने का रंग लालिमा लिये हुए होता है , पूराने पौधे के पत्ते भी लालिमा लिये हुए हरे रंग के होते हैं ।
पुष्प छोटे वृण्त युक्त और सफ़ेद रंग के होते है । तथा छोटे छोटे बीजो युक्त होते हैं बिल्कुल सुरज मुखी के फ़ुलों की तरह लगते हैं ।
यह कटु रस युक्त तीक्ष्ण , रुक्ष, उष्ण होता है ,
प्रभाव -- केशों को रंजने वाला , यानि इसका प्रयोग मुख्य रूप से बालों की बिमारियों मे किया जाता है ।
कफ़वात शामक, उत्तम रसायन, लिवर टोनिक, केश्य, कृमिनाशक, श्वासकास नाशक, नेत्ररोग नाशक, शिरोरोग नाशक ।
मै इसको अपनी आयुर्वेदशाला मे निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हूँ --
- उदररोगॊं मे इसके स्वरस का प्रयोग ।
- अर्श या बवासीर मे इसके स्वरस का प्रयोग और इसके पांचाग की मसी का प्रयोग रक्तजार्श मे स्थानिक प्रयोग
- विभिन्न रसायन कर्मो के लिये भृंगराजासव का प्रयोग
- बालो की सम्स्याऒ मे इससे सिद्द तैल का प्रयोग
- विभिन्न त्वचारोगों मे स्थानिक और अभ्यांतर प्रयोग
- मुत्ररोगो मे जब मुत्र की मात्रा कम हो और मुत्र गाड़ा और लाल रंग का हो
Saturday, July 31, 2010
Tribulus terrestris , Land caltrops, Puncture vine, गोक्षुर, गोखरु
यह भूमि पर फ़ैलने वाला छोटा प्रसरणशील क्षुप होता है जो कि आषाड और श्रावण मास मे प्राय हर प्रकार की जमीन या खाली जमीन पर उग जाता है । पत्र खंडित और फ़ुल पीले रंग के आते हैं , फ़ल कंटक युक्त होते हैं , बाजार मे गोखरु के नाम से इसके बीज मिलते हैं ।
उत्तर भारत मे ,हरियाणा, राजस्थान , मे यह बहुत मिलता है।
यह शीतवीर्य, मुत्रविरेचक, बस्तिशोधक, अग्निदीपक, वृष्य, तथा पुष्टिकारक होता है ।
विभिन्न विकारो मे वैद्यवर्ग द्वारा इसको प्रयोग किया जाता है ,
मुत्रकृच्छ, सोजाक, अश्मरी, बस्तिशोथ, वृक्कविकार, प्रमेह, नपुंसकता, ओवेरियन रोग, वीर्य क्षीणता मे इसका प्रयोग किया जाता है ।
मै अपनी आयुर्वेदशाला मे इसको निम्नलिखित रोग मे प्रयोग करता हुँ --
- वृक्क अश्मरी मे गोक्षुर+ यवक्षार+ गिलो्सत्व+ कलमी शोरा का प्रयोग बहुत ही कारगर होता है ।
- क्रोंचबीचचुर्ण+ गोक्षुर+ तालमाखाना , वीर्य वर्धक और वीर्य शोधक ,
चित्रप्राप्ति स्थान-- राणा एग्रिक्ल्चर फ़ार्म जिला करनाल हरियाणा
Wednesday, July 21, 2010
,Clerodendrum phlomidis अग्निमंथ, अरणी
इसका बहुवर्षायु क्षुप होता है जो कि झुण्ड बनाकर बड़ता है , पत्र लट्वाकार और अभिमुख होते है पुष्प सफ़ेद होते है ।
इसको वृहद अग्निमंथ के आभाव मे प्रयोग किया जाता है ।
यह लगभग सारे उत्तर भारत मे पाया जाता है ।
इसके गुण और प्रयोग-
उष्ण, दीपन, सारक, बल्य, रसायन, शोथहर होता है ।
कफ़ वात शामक , बल्य, रसायन, शोथहर
मै इसकॊ निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हुँ--
आगन्तुज शोथ मे इसके क्वाथ से अवगाहन स्वेद करने से तुरंत लाभ मिलता है ।
हृदय रोग (कफ़ज) मे इसके क्वाथ और शिलाजीत का सेवन बहुत ही उपयोगी है ।
आमवात और आंत्रिक ज्वर मे इसका प्रयोग विषतिन्दुक वटी के साथ करने से फ़ायदा मिलता है ।
मधुमेह मे इसके पत्रस्वरस का प्रयोग किया जाता है।
विभिन्न विस्फ़ोट युक्त ज्वरों की अवस्था मे इसके क्वाथ या स्वरस का प्रयोग किया जाता है।
चित्र प्राप्ति स्थान-- राणा एग्रीक्ल्चर फ़ार्म , जिला करनाल हरियाणा ।
Saturday, June 26, 2010
Ricinus communis, एरण्ड, पंचाँगुल,
एरण्ड लगभग सारे भारतवर्ष मे हर जगह मिल जाता है , जैसा की नाम से विदित होताहै इसके पते एक फ़ैले हुए हाथ की तरह होते है , इसलिये इसको पंचाँगुल कहते है । वातहर एवं वृष्य द्रव्यों मे यह सर्वश्रेष्ठ है ऎसा चरक ने बताया है , आजकल वैद्यवर्ग इसका चिकित्सा मे भरपूर उपयोग करते है । वात रोगों मे यह मेरी प्रिय औषधि है , इसका विभिन्न रुपॊं मे प्रयोग किया जा सकता है , जैसे कि , एरण्ड मूल का क्वाथ या चुर्ण, इसके बीजों का तैल , इसके बीजों द्वारा बनाया गया एरण्ड पाक जो की मुख्य रुप से बड़ती हुई उम्र मे शरीर मे हो रही वात वृद्दि का शमन करता है और बड़ती हुई उम्र मे होने वाले रोग जैसे की , अनिद्रा, शरीर मे बाय - बादी, चिन्तन करना, चलने फ़िरने मे परेशानी आदि आदि ।
हमारे ग्रन्थ एरण्ड के बारे मे क्या कहते हैं--
गुण कर्म-- स्निग्ध, तीक्ष्ण, सूक्ष्म .
रस-- मधुर,
विपाक- मधुर
वीर्य-- उष्ण
कफ़वातशामक, वातहर, वाजीकरण, हृदयरोगनाशक, आमवातशामक, वेदनास्थापन, उदररोग नाशक, बस्तिशूल नाशक, योनिरोगनाशक, शुक्ररोगनाशक, वृदिरोग नाशक, स्त्नयरोगनाशक, स्रोतोशोधन, वय:स्थापन, शोथनाशक, कटिशूल नाशक ।
मै अपनी आयुर्वेदशाला मे इसकॊ निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हूँ --
- कमरदर्द मे दशमूल क्वाथ और एरण्ड तैल के साथ , साथ मे शिलजीत मिलाकर बहुत ही लाभदायक
- विभिन्न योनिरोगों मे , विशेषकर कृच्छार्तव, मासिक अनियमितता, ओवेरियन पोलिसिस्टिक रोग, आदि रोगों मे
- शुक्र रोगों मे खासकर शुक्राणुओं की कमी , लो मोटिलीटि, आदि मे मुलेठी चुर्ण के साथ लगातार प्रयोग करने से लाभ मिलता है ।
- सन्धि शूल और आमवात मे एरण्ड तैल और एरण्ड्मूल + रास्ना क्वाथ ।
- वृद्धावस्थाजन्य रोग मे एरण्ड पाक बलारिष्ट के साथ बहुत ही उपयोगी ।
- गृध्रसि रोग मे सुरांजन , विषतिन्दुक, रससिन्दुर और एरण्ड तैल का अभ्यान्तर प्रयोग और साथ मे एरण्ड तैल मे गर्म किये हुए एरण्ड के पत्तों से सेक लाभदायक ।
- आमवात रोग मे बहुत ही उपयोगी , इसके तैल मे भ्रष्ट हरितकी और सिंहनाद गुगलु बहुत ही उपयोगी ।
मार्किट मे इसके निम्नलिखित योग आसनी से मिल सकते हैं---
एरण्ड पाक, एरण्डमूलादि क्वाथ, रास्नासप्तक क्वाथ, एरण्ड तैल, सिंहनाद गुग्गुलु आदि ।
Monday, June 7, 2010
Cichorium intybus,कासनी Endive
उत्तर भारत मे शीतकाल मे यह पौधा पैदा होता है । इसके पुष्प नीले रंग के आते है गर्मियो पुष्प और बीज आने के बाद यह सूख जाती है ।
प्रयोज्य अंग-- बीज, पत्र, मूल
मात्रा- पत्रस्वरस- १० से २० मि. लि. , बीज चुर्ण- ३- ५ ग्रा. मूल चुर्ण- ३-५ ग्रा.
उत्तम लिवर टोनिक, हृदय को बल देने वाली, कफ़पित्त शामक, मूत्रजनन, रक्तशोधक, आमाशय को बल देने वाली
युनानी चिकित्सा मे यह मह्त्वपूर्ण औषधि है ।
गुण- लघु, रुक्ष. रस-- तिक्त. विपाक- कटु, वीर्य- उष्ण
मुख्य प्रयोग--
नेत्रज्योति प्रकाशनि, शीतल, दाह, पित्त, ज्वर, कामला( पीलिया) , रक्तविकार , कृशता (शरीर का पतलापन) इन रोगो मे यह बहुत ही उपयोगी है ।
दिल की धड़कन के बड़ने पर इसके बीजो का शीत कषाय पीने से तुरंत लाभ मिलता है ]
मुख्य योग-- अर्क कासनी( हमदर्द)
Wednesday, May 26, 2010
Barleria prionitis, सहचर, सैरेयक, पियाबाँसा
यह एक बहुवर्षायु कंटकित क्षुप होता है जो कि उष्ण स्थानो पर प्रायश: शुष्क भुमि पर मिलता है । पत्ते बिल्कुल बासे के तरह के होते है , पुष्प पीले रंग के मंजरियो मे आते है , इसके काण्ड पर काँटे होते है ।
आधुनिक द्रव्यगुण मे इसको कुष्ठ्घ्न कहा गया है । इसके द्वारा सिद्ध सहचरादि तैल वैद्यों मे बहुत प्रसिद्ध है जो कि वात नाशक होता है ।
आयुर्वेदिक गुण कर्म-
लघु, स्निग्ध, तिक्त मधुर ,, कटु, वीर्य - उष्ण
कफ़वातशामक, वेदनास्थापन, व्रणरोपण, व्रण शोधन, केश्य, विषनाशक. प्रदररोगनाशक.
प्रयोग---
विभिन्न वात रोगों मे इससे सिद्ध तैल का प्रयोग बस्ति और अभ्यंग मे किया जाता है ।
प्रदर रोग मे इसका रस देसी खाण्ड मे मिलाकर दिया जाता है।
पत्तों के कल्क को विभिन्न त्वक विकारों मे प्रलेप किया जाता है ।
प्रसिद्ध योग-- सहचरादि तैल
चित्र प्राप्ति स्थान-- करनाल, हरियाणा
Friday, May 14, 2010
Nerium indicum, Indian oleander करवीर,, कनेर
उत्तर भारत मे लगभग हर जगह बागों मे लगाया हुआ पाया जाता है । इसका हर भाग विषैला होता है अत: इसे किसी वैद्य की देखरेख मे ही प्रयोग करें ।
- विभिन्न त्वचा रोगों मे इसके पत्रों से सिद्ध तैल का प्रयोग किया जाता है , इससे सिद्ध तैल व्रण शोधन और व्रण रोपण भी होता है ।
- हृदय रोगो मे जब कोई और उपाय नही होता है तो इसका प्रयोग किया जाता है , इसके मात्रा १२५ मि. ग्रा से ज्यादा नही होनी चाहिये
Wednesday, May 12, 2010
Cassia occidentalis , Negro Coffee, कासमर्द
उत्तर भारत मे लगभग हर जगह मिल जाता है , इसका छोटा क्षुप लगभग ३ से ४ फ़ुट तक बड़ जाता है । पीले रंग के फ़ुल अप्रैल और मई मे आते है ,बीज लम्बी फ़लियों मे आते है ।
- कास श्वास मे इसके पत्तों के रस का प्रयोग किया जाता है,
- पित्त के निर्हरण के लिये इसके पत्तों का शाक खिलाया जाता है ।
- इसके बीजों के चुर्ण का प्रयोग विभिन्न त्वचा रोगों मे लेप के रुप मे किया जाता है।
- कण्ठ शोधन के लिये इसकी मूल कॊ मुह मे धारण किया जाता है ।
- कासमर्द बीज चुर्ण, पत्रस्वरस और गंधक का लेप सिध्म(ptrisys versicolor रोग मे प्रय़ोग किया जाता है
Friday, April 30, 2010
Adhatoda vasica , Malabar Nut, अडुसा, वासा, वाजीदन्त,सिंहास्य
यह एक बहुवर्षायु क्षुप होता है और भारत वर्ष मे लगभग हर जगह मिल जाता है , इसके पुष्प सफ़ेद रंग के और मण्जरियों मे आते है , स्वाद मे ये मीठे होते है ।
- रीढ की हड्डी की चोट मे इसके पत्तों को एरण्ड तैल से गरम करके बांधने से लाभ मिलता है ।
- पीले पके हुए पत्तों का पूटपाक विधि से निकाले हुए रस का प्रयोग विभिन्न प्रकार कास मे किया जाता है
- रक्तप्रदर और रक्तज अर्श मे इसके स्वरस और देसी खांड मिलाकर खानी पेट देने से लाभ मिलता है ।
- वासामूल चुर्ण और निम्ब पत्र चुर्ण से रक्तभार मे फ़ायदा मिलता है ।
- फ़ुलों के मुरब्बे का प्रयोग श्वास और कास मे कियाजाता है ।
- विभिन्न चमडी के विकारो मे इससे सिद्ध पंचतिक्त घृत का प्रयोग किया जाता है
- फ़ेफ़ड़ों और हृदय के लिये यह अतीव उपयोगी है।
Tuesday, April 27, 2010
Alhagi camelorum , Camel thorn, यवासा
इसका कंटकयुक्त क्षुप वर्षायु होता है , जब ग्रीष्म ऋतु मे सभी क्षुप सुखने के कगार पर होते है तो यह हरा भरा होता है , वर्षा ऋतु मे यह सुख जाता है , मई मे इस पॊधे के गुलाबी रंग के छोटे छोटे पुष्प आते हैं, यह उत्तर भारत मे लगभग सभी जगह विशेष कर सुखी धरती पर होता है ।
Monday, April 19, 2010
Achyranthes aspera, अपामार्ग, लटजीरा,Prickly chaff flower
उत्तरभारत लगभग हर जगह मिल जाता है । बहुवर्षायु क्षुप, छोटे बीजों (कंटक युक्त) की मंजरी युक्त , इसके बीज यदि कपड़ों से स्पर्श हो जाते है तो चिपक जाते हैं ।
धवल कुष्ठ निवारणार्थ इसके क्षार को मैनशिल और गोमुत्र मे पीसकर लेप कियाजाता है ।
Sunday, April 18, 2010
Tinospora cordifolia, गिलोय बेल, अमृता, छिन्नरुहा
श्रीरामचन्द्र जी द्वारा रावण के संहार ऊपरांत जब सभी देवता अत्यंत प्रसन्न थे , तब इन्द्रदेव ने युद्ध मे मारे गये वानरो को पुनर्जीवत करने के लिये अमृत वर्षा की , जो बुन्दे वानरो पर पड़ी वो जीवीत हो गये , और जो बुन्दे धरती पर पड़ी उनसे ही इस पवित्र और अमृत रुपी बेल की उत्पति हुई । इसके गुण अमृत समान होने के कारण ही इसको अमृता भी कहा जाता है ।
Sunday, April 11, 2010
Abutilon indicum , country mallow, अतिबला , कंघी
उत्तर भारत मे हर ऋतु मे मिल जाता है , पत्ते लट्वाकार दन्तुर छोटे व बडे़ हो सकते है , फ़ुल पीले रंग के होते है , बसंत मे फ़ूल आते है , फ़ल कंघी के आकार के गोल गोल होते है , बीज काले या कुछ भुरे रंग के होते हैं ।
- इसके पत्तों को गुड़ मे रख कर खाली पेट देने पर रक्तार्श मे लाभ होता है ।
Wednesday, April 7, 2010
Lochnera rosea, Madagascar periwinkle संदपु्ष्पा, सदाबहार
- सफ़ेद फ़ुलों वाली प्रजाति के पत्रो के कल्क का का प्रयोग मधुमेह मे किया जाता है ।
- रक्तार्बुद मे इसके मूल चुर्ण का प्रयोग किया जाता है
- रक्तभाराधिकय मे इसके पांचांग के चुर्ण लाभदायक होता है ।
प्रयोज्यांग-- पत्र, मूल, पांचांग
Tuesday, April 6, 2010
Sida cordifolia,Country Mallow, बला, खिरैंटी
मै अपनी आयुर्वेदशाला मे इसको निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हूँ-
- क्षयरोग व आजो वर्धन के लिये
- स्त्रियों के बाँझपन के लिये
- पुरुषों मे शुक्रहीनता के लिये
प्रयोज्यांग-- स्वरस व मूल चुर्ण
बलारिष्ट मे यह मुख्य घटक के रुप मे होती है ।
Saturday, April 3, 2010
Solanum surratence,Yellow Berried Night shade ,कंटकारी,छोटी कटेरी
इसका फ़ैलने वाला , बहुवर्षायु क्षुप होता है ,पत्ते लम्बे काँटो से युक्त हरे होते है , पुष्प नीले रंग के होते है , फ़ल क्च्चे हरित वर्ण के और पकने पर पीले रंग के हो जाते है , बीज छोटे और चिकने होते है ।
- विभिन्न त्वचा रोगों मे पंचतिक्त घृत के रूप मे
- विस्फ़ोट(Boils) पर इसके बीजों का लेप किया जाता है
- श्वास व कास रोगों मे , जहाँ कफ़ गाड़ा और पीलापन लिये हुए होता है
Friday, April 2, 2010
Boerhavia diffusa,Spreading hogweed पुनर्नवा, गदहपुरना
यह एक फ़ैलने वाला क्षुप होता है जो कि स्मस्त भारत मे प्राय: शुष्क स्थानो मे होता है , गर्मियों मे यह सूख जाता है , इसके पत्ते लालिमा लिये हुए हरे रंग के मांसल, लटवाकार, होते है , काण्ड लालिमा लिये हुए हरे रंग का होता है । पुष्प बहुत छोटे और गुलाबी रंग के होते है और एक लम्बी टहनी (वृन्त) पर गुच्छों मे आते है , इसकी मूल का ज्यादा प्रयोग होता है ।
आयुर्वेदिक गुण कर्म--
गुण-- लघु, रुक्ष
रस-- मधुर, तिक्त, कषाय
विपाक-- मधुर
वीर्य-- ऊष्ण
त्रिदोषशामक,शोथघ्नी,विरेचक,नेत्रविकार नाशक, कब्ज नाशक, विषहर, पाण्डु रोग नाशक, उदर रोग नाशक, सर्वांगशोथ नाशक, मुत्रविरेचक,ह्रुदय रोग नाशक,
मै अपनी आयुर्वेदशाला मे इसको निम्नलिखित रोगों मे प्रयोग करता हूँ ---
१. सभी प्रकार की स्थानिक सुजन और सर्वांग सुजन मे इसकी मूल के कल्क को थोड़ा गरम करके शोथ युक्त स्थान पर लेप लगाने पर वह सुजन कम हो जाती है ।
२. सर्वांगशोथ विशेष कर हृदय जन्य शोथ मे यह बहुत ही लाभ करती है ।
३. अक्षि अभिष्यंद(eye flue) और अक्षि शूल मे इसकी मुल के स्वरस को डालने से चम्तकारी लाभ मिलता है ।
४. शोथ युक्त हृदय रोगों मे और यृकत(liver) जन्य शोथ मे इसकी मूल का क्वाथ या इसके शास्त्रीय योगों को देने से फ़ायदा मिलता है ।
५. इसके शाक का प्रयोग उदररोग, पाण्डु रोग(anemia),हृदय रोग , शोथ(edema), आमवात. आदि मे बेहिचक कर सकते हैं ।
Thursday, April 1, 2010
Calotropis procera , Madar, आक, अर्क, आखा
यह बहुवर्षायु गुल्म या क्षुप होता है जो कि शुष्क और सुखी जमीन पर अधिक पाया जाता है , पश्चिमोत्तर भारत मे यह बहुत मिलता है , इसकी मुख्यतया दो प्रजाति होती है , एक लाल फ़ुलो वाला और एक सफ़ेद फ़ुलो वाला , यहाँ पर लाल फ़ूल वाले अर्क का वर्णन किया गया है । बसंत मे गुच्छो मे फ़ूल लगते है जो कि सफ़े या कुछ लाल रंग के होते है और गर्मियों मे फ़ल आने पर रुई के समान इस मे से रेशे निकलते है ।
- विभिन्न उदररोगों मे अर्क लवण का प्रयोग
- कर्ण पीड़ा मे ताजे पीले पतों के स्वरस को कुछ गरम करके , कान मे डालने से तुरंत लाभ होता है
- कठिन , रुक्ष , मोटे, पाकरहित , दद्रु रोग, आदि त्वचा रोगों मे जिसमे पाक न होता है , इसके मूल की त्वचा का लेप या इसका दुध लाभदायक होता है
- माईग्रेन (Migraine ) की यह विशेष औषधि है
- भगन्दर कि चिकित्सा मे प्रयुक्त क्षारसूत्र को इसके दुध से भावित करके बनाया जाता है ।
- विष दुर करने के लिये इसकी मूल के चुर्ण का प्रयोग किया जाता है , इससे वमन और विरेचन दोनो एकदम हो जाते है और काया विष रहित हो जाती है
- शोशयुक्त जोडो़ के दर्द मे और आमवात इसके पत्तो को गरम करके बांधने से लाभ मिलता है
- श्वास रोग मे इसको फ़ुलो को शुण्ठि और वासा मुलचुर्ण के साथ कोष्ण जल से लेने से फ़ायादा होता है ।
Wednesday, March 31, 2010
Argemone mexicana, Mexican Poppy, स्वर्णक्षीरी, सत्यानाशी,चोक
इसका वर्षायु क्षुप होता है जो कि कंटीले पत्रो युक्त एवं चमकीले हरे रंग का होता है , सर्दियों मे यह उत्पन्न होता है और बसंत मे इसके चमीकले फ़ूल आतेहैं । पत्तों को तोड़ने पर पीले रंग का दुध जैसा पदार्थ निकलता है , इसी कारण इसको स्वर्णक्षीरी भी कहते हैं ।
- व्रण( Skin Ulcer) शोधक कल्क को व्रण पर लगाने से दूषित व्रण भी ठीक हो जाता है
- विभिन्न त्वचा रोगों(Wet eczema) मे इसको अमलतास की लकड़ी, मैनशल, गंधक, बाकुची बीज, के साथ चुर्ण करके शतौध घृत मे मिलाकर लेप के रुप मे प्रयोग करने पर बहुत ही लाभजनक होता है ।
- मूल स्वरस ( ५-१० मिलि.) को हर प्रकार के चर्म रोगों मे प्रयोग किया जाता है ।
Tuesday, March 30, 2010
Blumea lacera ,ताम्रचूड़, कुकरौंधा
यह छोटा मुलायम रोमश एवं उग्र कर्पूरगंधि क्षुप होताहै जो कि उत्तर भारत मे सर्दियों के मोसम मे होताहै और बंसत के आखिर मे यह सूख जाता है , इस पौधे की सुंगंध चारो और फ़ैल जाती है ।
- रक्तज अर्श मे बहुत ही उपयोगी , एलुआ और इस द्रव्य को मिलाकर चने के आकार की गोलियाँ बना कर रक्तज अर्श मे प्रयोग
- जले हुए व्रणों मे कल्क का उपयोग बहुत ही अच्छा व्रणरोपण और एंटीसेप्टिक होता है
- बच्चॊ के कृमि ( उदर कृमियों मे ) एक चमच स्वरस को गर्म करके पिला दे
- नाक मे हुई फ़ुन्सियों मे इसकी जड़ को श्वेत कपड़े मे बांध कर गले मे डालने से तुरंत फ़ायदा होता है ।
Monday, March 29, 2010
Euphorbia thymifolia , नागार्जुनी, दुग्धिका, छोटी दुद्धी
आयुर्वेदिक गुण--
- रक्तज अर्श( बवासीर ) की वर्धमान अवस्था मे बहुत ही उपयोगी , इसके कल्क को लेने से मांसाकुर सुख कर रक्तज अर्श को समाप्त कर देते हैं ।
- स्त्रियों के बन्ध्यत्व मे बहुत ही उपयोगी, इस पोधे मे यह विशेष गुण होता है की यह स्रोतोवरोध जन्य स्थिति मे बहुत ही अच्छा कार्य करती है , ट्युब ब्लोकेज मे यह उपयोगी द्रव्य है ।
- मधुमेह मे हल्दी और वासा स्वरस के साथ बहुत ही अच्छा प्रभाव दिखाती है ।
Sunday, March 28, 2010
Asteracantha longifolia , कोकिलाक्ष, तालमाखना
इसका वर्षायु क्षुप होता है , जो तालाबों और नहरो के किनारो पर मिलता है , तने की गाँठो पर काँटे होते है. पत्ते लम्बे होते है और गाँठो पर गुच्छे मे आते है ।
मै अपनी आयुर्वेदशाल मे इसको निम्नलिखत रोगों मे प्रयोग करता हुँ--
- पित्त की थैली की पथरी(Cholecystitis) मे यह बहुत ही उपयोगी है , क्वाथ का प्रयोग करें ।
- वातरक्त(Gout) और शोथ युक्त वातरक्त मे
- अश्मरी मे क्षार का प्रयोग
- वाजीकरण के लिये केंवाच बीज चुर्ण समान मात्रा मे कोकिलाक्ष बीज चुर्ण के साथ
- उत्तम गर्भाशय शामक (uterine sedative ) |
Saturday, March 27, 2010
Soleanum nigrum , मकोय, मको, काकमाची
काकमाची या मको उत्तर भारत मे लग्भग हर जगह पायाजाता है । यह पौधा खुब हरा भराहोताहै । दैनिक चिकित्सा मे मै इसको भरपुर उपयोग मे लाता हूँ । लिवर को रोगो मे इसका उपयोग बहुत ही उपयोगी है ! जहाँ एक से एक महंगी औषधियाँ काम नही करती यह काम कर जाती है । गुण तथा दोष कर्म--- तिक्त तथा कटुरस,स्निगध, उष्ण, रसायन, शुक्रजनन, तथा त्रिदोषशामक लिवर रोगो मे इसको देने का तरीका---शुद्ध भूमि से इसके पौधे को जड समेत उखाड कर अच्छी तरह से धो लें। इसके बाद इसको कुट कर इसका रस निकाल ले । एक मिट्टी कि हाण्डी लेकर इस रस को तब तक मन्द आँच पर तब तक गर्म करें जब तक की इसका रँग हल्का गुलाबी नही हो जाता । अब इसकॊ करीब ५० मि. लि. लेकर इसमे ३ काली मिर्चों का चुर्ण डालकर पी जाएं यदि आपकी जठराग्नि तीव्र है तो इसकॊ खाली पेट ले नही तो खाना खाने के १ घन्टे बाद ले । दिन केवल एक बार ले ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्वरस हर रोज ताजा उपयोग करें। हर रोज बनाये और प्रयोग मे लाएं।
Friday, March 26, 2010
Alove vera, घृत कुमारी, कुमारी, घी कुँवार
आधुनिक औषधि वर्गीकरण मे इसे पित्तविरेचन वर्ग मे रक्खा गया है । इसकी मुख्य क्रिया वृहदाआन्त्र पर होती है जिससे इसकी पेशीयों का प्रबल संकोच होकर इसकी पेरीस्टालिक मुमैंट बढ जाती है । इस तरह से यह कब्ज मे मुख्य रुप से काम करता है ।
कुल मिलाकर यह अपान वायु पर कार्य करता है
आचार्य भावमिश्र ने इसके ये गुण , दोषकर्म बताएं है ----भेदनी -- यानि रुके हुए मल का भेदन करने वाली
२ शीत
३. तिक्त
४ नेत्रॊं के लिये हितकर
५. रसायन ( बुढापे को रोकने वाली और व्याधिक्षम्त्व बढाने वाली)
६बृंहणीय ( शरीर को मोटा करने वाली)
वृष्य, बल्य, वातशामक, विषनाशक, गुल्म ( बाय का गोला), प्लीहारोग, यकृत विकार, कफ़रोग नाशक, ज्वरहर, ग्रन्थि नाशक( टुमर, सीस्ट,) नाशक, जले हुए मे लाभकारी, त्वचा के लिये हितकर,पैतिक और रक्त्ज रोगों का नाशक।
इसका घन यानि एलुआ मुख्य रुप से आर्तवजनन होता है ।
अब सवाल आता है कि इसका प्रयोग कैसे करे या किस रुप मे करे? आपके पास दो विक्ल्प है , एक एलोव वेरा जूस और अन्य आयुर्वेदिक शास्त्रिय योग जैसे कि कुमार्यासव । आईए इनका तुलनात्मक अध्ययन करके देखेते है ।
एलोव वेरा जूस मे सिर्फ़ एक घटक यानि ग्वारपाठा होता है , जिसमे कम्पनिया इसको सुरक्षित रखने के लिये विभिन्न प्रकार के प्रिजर्वेटिव केमिकल डालती है जैसे की - सिट्रीक एसिड , सोडियम बेन्जोएट, आदि आदि,।
अब ऋषिमुनियों द्वारा वर्णित योग यानि कुमार्यासव का अध्ययन करते है ---
मुख्य द्रव्य- ग्वारपाठे का रस
२ शहद, ३, लोह्भस्म,४,पुरानागुड,
मुख्य प्रेक्षप द्रव्य---
हल्दी, अकरकरा, त्रिफ़ला, त्रिकटु, नागकेशर, पिप्प्लीमूल, मुलेठी, पुष्करमूल, गोखरु,केवांच के बीज, उटंगन के बीज, पुनर्नवा, लोंग, इलायची, देवदारु आदि( शा० सं०)
कल्पना-- सन्धान कल्पना ( कुदरती एल्कोहाल )
जैसा कि पहले बताया है मुख्य रुप से ग्वारपाठा कफ़पित्त शामक होताहै यानि यदि लगातार इस को अकेले हि प्रयोग करते है तो यह शरीर मे दोषों को असाम्य कर सकता है । एलोव वेरा जुस मे केमिकल भी होते है यह भी सोचीये ..........?
लेकिन कुमार्यासव मे कोई केमिकल नही होता और न ही सिर्फ़ एक ही द्रव्य , ग्वार पाठे के विपरित प्रभाव को दुर करने के लिये इसमे अन्य द्रव्य बहुत है ।
अत: मेरे विचार मे एलोव वेरा जुस की आपेक्षा कुमार्यासव लेना हितकर है ।
Withinia sominifera अश्वगन्धा
अश्वगन्धा के गुण और कर्म--
गुण- लघु स्निग्ध
रस- तिक्त, कटु, मधुर
विपाक- मधुर
वीर्य-- ऊष्ण
प्रयोज्य अंग-- मूल चुर्ण
मात्रा- ३-६ ग्रा.
मुख्य प्रयोग-
- सुजन मे इसके पत्तों को एरण्ड तैल मे गरम करके प्रभावित स्थान पर रख देते है , जिससे सुजन मे कमी आती है ।
- गिल्टी और स्थानिक सुजन मे इसकी मूल को पानी मे घीस कर लेप लगाने से वो ठीक हो जाती है
- चोपचीनी और अश्वगंधा के चुर्ण को समान भाग मिलाकर कोष्ण जल के साथ लेने से यह आमवात और पी आई डी मे बहुत ही चमत्कारी असर दिखाता है ।
- मानसिक शांति और अधिक रक्तचाप मे इसका प्रयोग किया जाता है इसके लिये अश्वगंधारिष्ट या अश्वगंधा लेह बहुत ही अच्छे योग है
- मुत्राघात ( पेशाब की रुकावट) मे यह बहुत ही उपयोगी है ।
- बालशोष मे यह विशेष उपयोगी है
- स्त्रियों की गर्भाशय संबंधि व्याधियों मे यह अतीव उपयोगी है ।